Thursday, July 3, 2025
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“काला था वो दिन… और आज जो चल रहा है, वो क्या है — चारकोल?”

संविधान की हत्या की बरसी या लोकतंत्र की ICU रिपोर्ट?

✍️ 25 जून 2025 | बुलंद सोच डिजिटल डेस्क

25 जून — वह तारीख जो भारतीय लोकतंत्र की सबसे काली रात के रूप में दर्ज है। आज़ाद भारत में लगे आपातकाल (Emergency) को लेकर हर साल इस दिन सत्ता पक्ष और विपक्ष अपने-अपने तरीके से “लोकतंत्र की हत्या” को याद करते हैं। टीवी डिबेट्स गर्म हो जाती हैं, नेता प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाते हैं, कुछ बयानों की फायरिंग करते हैं, और सोशल मीडिया पर “ब्लैक डे” ट्रेंड करने लगता है। हर साल वही बयान, वही भाषण — “आज ही के दिन संविधान का गला घोंटा गया था!”

लेकिन 50 साल बाद 2025 की जनता अब पूछ रही है — और जो आज हो रहा है, वो कौन सा रंग है साहब?

क्या हम सचमुच सिर्फ उस एक दिन को “काला” कह सकते हैं?
या अब हम धीरे-धीरे एक ‘चारकोल लोकतंत्र’ में सांस ले रहे हैं, जिसमें ना चमक बची है, ना सवालों का जवाब?

“संविधान की हत्या हुई थी” — लेकिन अब तो वो ऑक्सीजन सपोर्ट पर है

मुख्यमंत्री मोहन यादव ने इस मौके पर बयान दिया,

“25 जून को बाबा साहब के संविधान का गला घोंटा गया था। वो भारत के लोकतंत्र पर कलंक था।”

यह सुनते ही बुलंद सोच न्यूज़ की टीम ने अपने रिपोर्टर से पूछा —
क्या तब सचमुच संविधान की हत्या हुई थी?
क्योंकि आज जो चल रहा है, वो तो पूरे शरीर को निचोड़ लेने जैसा लग रहा है।

क्या जब एक आदिवासी नाबालिग बच्ची के साथ बलात्कार होता है — और ABVP के पूर्व छात्रनेता और बीजेपी से जुड़े नेता भगवान सिंह मेवाड़ा के खिलाफ चार महीने पहले एफआईआर दर्ज होने के बावजूद, वो खुलेआम घूमता रहता है —
तो क्या ये संविधान के विचारों की हत्या नहीं है?

क्या यही ‘रामराज्य’ है, जहां बेटियां चुप हैं, और बलात्कारी चालाक?
और फिर भी नेताओं को ये दिन याद आता है जब अखबार बंद हुए थे — लेकिन आज जब पूरी पीढ़ी की आवाज़ दबाई जा रही है, तब कोई आवाज़ नहीं उठती?

“गांधी को छोड़ दिया कांग्रेस ने” — और आपने क्या अपनाया?

बीजेपी विधायक रामेश्वर शर्मा कहते हैं:

“गांधीजी के विचारों को कांग्रेस ने छोड़ दिया, तभी से उनका ब्लैक डे शुरू हो गया।”

हम पूछते हैं —
क्या गांधी जी ने बलात्कारियों को संरक्षण देने की सीख दी थी?

क्या गांधी जी ने पुलिस को ‘सत्ता के ऑर्डर’ पर चलने वाली फोर्स बताया था?

क्या गांधी जी ने पत्रकारों को धमकाने, जेल में डालने या ट्रोल कराने की कल्पना की थी?

गांधी के नाम पर वोट मांगने वाले जब गांधी की अहिंसा, सच, विरोध की आज़ादी और सामाजिक न्याय जैसे विचारों को ही सत्ता में कुचल देते हैं — तो फिर “ब्लैक डे” की राजनीति आखिर किसके लिए हो रही है?

लोकतंत्र: तब गला घोंटा गया, अब आत्मा निकाली जा रही है

1975 में इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल को संविधान की सबसे बड़ी त्रासदी बताया जाता है। प्रेस पर ताले पड़े थे, विरोधियों को जेल में डाला गया था, संविधान में जबरन संशोधन हुए थे।

लेकिन अगर 1975 की प्रेस चुप थी, तो 2025 की प्रेस बिक चुकी है।
तब सेंसरशिप सरकारी थी, अब “नैरेटिव” के नाम पर हर लाइन फिक्स है।

तब नेता गिरफ्तार होते थे, आज जनता बेरोजगार होकर अंदर से मरी हुई है।

तब विरोध पर डंडा चलता था, आज “देशद्रोही” का ठप्पा चल जाता है।

तब अखबार छपने से रोके जाते थे, आज मालिक खुद कॉलम काट देते हैं।

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क्या यही लोकतंत्र है?

आज अगर कोई किसान बिल के खिलाफ सड़क पर बैठता है — तो उस पर राजद्रोह लग जाता है।

अगर कोई आदिवासी या दलित लड़की न्याय मांगती है — तो पहले पुलिस उसे इग्नोर करती है, फिर मीडिया।

अगर कोई पत्रकार जनहित में सवाल पूछता है — तो उसे देशद्रोही कहकर जेल भेजा जाता है।

अगर कोई छात्र विरोध करता है — तो उसकी यूनिवर्सिटी में पुलिस भेज दी जाती है।

तो क्या अब संविधान सिर्फ किताब में बचा है?
या अब वो बस टीवी डिबेट की एक स्क्रिप्ट है, जहां हर नेता उसका हवाला देकर, असल में उसका मखौल उड़ा रहा है?

“ब्लैक डे” या “ब्लैक एरा”?

बात अब सिर्फ एक दिन की नहीं रही।

ये एक पूरी पीढ़ी का संकट है।

एक ऐसा दौर, जहां सवाल पूछना गुनाह बन गया है।
जहां न्याय मिलना “प्रिविलेज” हो गया है।
जहां संविधान सिर्फ समारोहों में याद किया जाता है, ज़मीन पर नहीं।

25 जून 1975 को लोकतंत्र की हत्या हुई थी — आज वो ICU में पड़ा कराह रहा है।

✊ जनता के सवाल, नेताजी के लिए:

  • आप RTI एक्ट को कमज़ोर क्यों कर रहे हैं, अगर पारदर्शिता से डर नहीं?
  • पत्रकार जेल में क्यों हैं, अगर प्रेस की आज़ादी पर भरोसा है?
  • बलात्कारियों को संरक्षण क्यों मिल रहा है, अगर महिला सम्मान सबसे ऊपर है?
  • संविधान की बात करते हैं, लेकिन दलित और आदिवासी आज भी सबसे असुरक्षित क्यों हैं?
  • अगर गांधी प्रिय हैं, तो मनुवादी नीतियों को क्यों पाल रहे हैं?

25 जून का दिन ऐतिहासिक है — लेकिन सिर्फ इमरजेंसी की यादों के लिए नहीं,
बल्कि आज के लोकतांत्रिक सच को आईना दिखाने के लिए भी।

तब संविधान का गला घोंटा गया था,
आज उसकी आत्मा को रोज़-रोज़ टुकड़ों में काटा जा रहा है।

kanchan shivpuriya
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कंचन शिवपुरीया माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय की मास कम्युनिकेशन की छात्रा हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय रूप से कार्य कर रही हैं और सामाजिक मुद्दों पर स्पष्ट, तथ्यपूर्ण एवं संवेदनशील दृष्टिकोण के लिए जानी जाती हैं।
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