Friday, July 18, 2025
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क्या अंबेडकर की मूर्ति न्याय की गरिमा को ठेस पहुंचाती है? मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में उठे सवाल, पूर्व चीफ जस्टिस का बयान चर्चा में

🗓️ 14 जुलाई 2025
रिपोर्ट: Buland Soch डेस्क

मध्यप्रदेश हाई कोर्ट के ग्वालियर खंडपीठ में डॉ. भीमराव अंबेडकर की मूर्ति लगाने को लेकर शुरू हुआ विवाद अब न्यायिक व्यवस्था, जातीय प्रतिनिधित्व और विचारधाराओं के टकराव का बिंदु बन चुका है। इस बहस ने न केवल अदालतों की परंपरा को सवालों के घेरे में लाया है, बल्कि यह भी स्पष्ट किया है कि भारतीय समाज में ‘विचार बनाम मूर्ति’ की जंग कितनी गहराई से व्याप्त है।

🔹 मूर्ति स्थापना पर विवाद क्यों?

डॉ. अंबेडकर संविधान के मुख्य शिल्पकार रहे हैं। उनका योगदान भारतीय लोकतंत्र की नींव में अमिट है। बावजूद इसके, जब मध्यप्रदेश हाईकोर्ट परिसर में उनकी मूर्ति लगाने का प्रस्ताव सामने आया, तो न्यायिक समुदाय और समाज के कुछ वर्गों से विरोध के स्वर उठे।

विरोध करने वालों के तर्क:

  • संविधान निर्माण एक सामूहिक प्रयास था, तो केवल एक व्यक्ति की प्रतिमा क्यों लगाई जाए?
  • न्यायिक परिसरों को पूरी तरह निष्पक्ष और व्यक्ति-निरपेक्ष रहना चाहिए।
  • मूर्ति पूजा का स्थान न्यायिक संस्थानों में नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह प्रतीकवाद और पक्षपात का रास्ता खोल सकता है।

समर्थन में उठी आवाज़ें:

  • अंबेडकर केवल संविधान निर्माता नहीं, बल्कि वंचित, शोषित और हाशिए पर खड़े समाज की आवाज़ भी हैं।
  • मूर्ति लगाना पूजापाठ नहीं, बल्कि ऐतिहासिक सम्मान और सामाजिक स्वीकार्यता का प्रतीक है।
  • यह कदम न्यायिक संस्थानों में समावेशिता की भावना को बल देगा, जो संविधान की आत्मा है।

🔹 पूर्व चीफ जस्टिस सुरेश कुमार कैत का बयान – एक बड़ा संकेत

मामला तब और गहरा हो गया जब हाल ही में सेवानिवृत्त हुए मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सुरेश कुमार कैत ने भास्कर से बात करते हुए कहा:

“मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के इतिहास में आज तक कोई भी एससी/एसटी वर्ग का जज नहीं बना। मेरे कार्यकाल में पहली बार दो अधिवक्ताओं को कॉलेजियम से अनुशंसा मिली है।”

यह बयान सिर्फ एक तथ्य नहीं, बल्कि भारतीय न्यायपालिका में लंबे समय से मौजूद जातीय असंतुलन की ओर स्पष्ट संकेत है। सुप्रीम कोर्ट के आंकड़ों के अनुसार, देश के उच्च न्यायालयों में एससी/एसटी और ओबीसी वर्ग का प्रतिनिधित्व 5% से भी कम है, जबकि देश की आबादी में यह वर्ग 70% से अधिक है।

ऐसे में यह सवाल और गंभीर होता जा रहा है —
क्या हमारी न्यायपालिका वास्तव में सभी वर्गों के लिए समान न्याय की संरचना कर पा रही है?

🔹 मूर्ति बनाम विचार – यह संघर्ष किस दिशा में जा रहा है?

गांधी, बुद्ध और अंबेडकर — तीनों ने जीवनभर मूर्ति पूजा से परहेज़ किया। स्वयं डॉ. अंबेडकर ने कहा था:

“मैं मूर्ति नहीं बनवाना चाहता, मैं चाहता हूँ कि मेरे विचार ज़िंदा रहें।”

इसके बावजूद, आज राजनीतिक दलों और कुछ संगठनों ने अंबेडकर की मूर्ति को एक राजनीतिक हथियार और प्रतीक में बदल दिया है। जगह-जगह मूर्तियाँ लगाई जा रही हैं, लेकिन अंबेडकर के मूल विचार — जैसे शिक्षा, समानता, आर्थिक न्याय और संवैधानिक नैतिकता — हाशिये पर हैं।

विचारों के स्थान पर मूर्तियों की लड़ाई अब जातीय ध्रुवीकरण और सामाजिक उन्माद का माध्यम बनती जा रही है।

🔹 क्या न्यायपालिका भी जातिवाद की चपेट में है?

पूर्व चीफ जस्टिस के बयान से यह प्रश्न भी उभरकर सामने आया कि क्या न्यायालयों में जातीय विविधता ज़रूरी है?

अगर न्यायपालिका की नियुक्तियों में विविधता नहीं होगी, तो क्या एक SC/ST व्यक्ति को यह डर नहीं रहेगा कि उसके केस में ‘जनरल’ वर्ग का जज पक्षपात कर सकता है? और क्या एक ‘जनरल’ वर्ग का व्यक्ति यह शंका नहीं करेगा कि SC/ST जज उसके खिलाफ पक्ष ले सकता है?

इस प्रकार की सोच, अगर न्यायपालिका में फैलती है, तो यह उस नींव को हिला सकती है जिस पर संविधान खड़ा है — निष्पक्ष न्याय और समान अवसर। यह स्थिति न्यायपालिका को राजनीति का अखाड़ा बना सकती है, जैसा कुछ राज्यों में भाषा या क्षेत्रीयता के आधार पर देखा गया है।

🔹 विवाद का समाधान – गरिमा और संतुलन की ज़रूरत

यह स्पष्ट है कि अंबेडकर की मूर्ति लगाने का मामला सिर्फ एक प्रतीकात्मक संघर्ष नहीं, बल्कि भारतीय समाज की मानसिकता, न्यायपालिका की पारदर्शिता और संविधान की भावना से जुड़ा हुआ मुद्दा है।

इस विषय पर खुला संवाद, बहस और सभी पक्षों की गरिमापूर्ण भागीदारी आवश्यक है। इसे किसी समुदाय विशेष की जीत या हार के रूप में नहीं, बल्कि संवैधानिक मूल्यों की पुनर्पुष्टि के रूप में देखा जाना चाहिए।

🔚 निष्कर्ष: हमें तय करना होगा — हम लड़ किसके लिए रहे हैं?

मूर्ति के लिए या विचार के लिए?
अगर हम बाबा साहब अंबेडकर को सच में श्रद्धांजलि देना चाहते हैं, तो उनकी मूर्तियों से ज़्यादा उनके विचारों को जीवित रखें।

हर बार जब हम उनकी प्रतिमा बनवाते हैं, हमें यह सवाल खुद से पूछना चाहिए —
क्या हमने उनकी शिक्षा, समानता और न्याय की भावना को अपने जीवन और संस्थाओं में अपनाया है?
अगर नहीं, तो मूर्तियाँ महज एक औपचारिक प्रतीक बन जाएंगी — और विचार इतिहास की धूल में खो जाएंगे।

kanchan shivpuriya
kanchan shivpuriyahttp://www.bulandsoch.com
कंचन शिवपुरीया माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय की मास कम्युनिकेशन की छात्रा हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय रूप से कार्य कर रही हैं और सामाजिक मुद्दों पर स्पष्ट, तथ्यपूर्ण एवं संवेदनशील दृष्टिकोण के लिए जानी जाती हैं।
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