मध्यप्रदेश में महिला सुरक्षा पर सरकार के दावों और जमीनी सच्चाई के बीच बढ़ता अंतर
"कानून किताबों में जितने सुंदर दिखते हैं, जमीनी हकीकत में उतने ही बेबस।"
हाल ही में भोपाल में आयोजित एक संवाद कार्यक्रम में एक मेडिकल छात्रा ने मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव से सीधा सवाल किया— “मॉक पार्लियामेंट में महिलाओं पर हो रहे यौन उत्पीड़न जैसे गंभीर मुद्दों पर चर्चा क्यों नहीं होती?” मुख्यमंत्री का जवाब था: “मध्यप्रदेश पहला राज्य है जहाँ बालिकाओं के यौन उत्पीड़न पर फांसी की सजा का प्रावधान है।” यह उत्तर सुनने में भले ही सख्त और आश्वस्त करने वाला लगे, लेकिन सवाल उठता है— क्या सिर्फ कानून बनाना ही काफी है? क्या जिन बच्चों और लड़कियों को इस समाज में सबसे ज्यादा सुरक्षा की ज़रूरत है, उन्हें कानून की किताबों में नहीं, हकीकत में राहत मिलती है?
वास्तविकता यह है कि कानून और ज़मीनी अमल के बीच की खाई दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। प्रदेश में हाल ही में सामने आए चार गंभीर मामले इस दावे की पोल खोलते हैं।
पहला मामला रीवा जिले का है, जहां ABVP के पूर्व संगठन मंत्री भगवन सिंह मेवाड़ा पर एक आदिवासी नाबालिग बच्ची से बलात्कार का आरोप है। मौगंज पुलिस ने POCSO और SC/ST एक्ट के तहत FIR तो दर्ज कर ली, लेकिन कांग्रेस और स्थानीय संगठनों का आरोप है कि आरोपी की राजनीतिक पहचान की वजह से कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। यह सवाल अब सीधा बन चुका है: क्या संगठन से जुड़ा होना कानून से ऊपर हो गया है?
दूसरा मामला भोपाल के अशोका गार्डन का है, जहां एक 4 साल की बच्ची ने अपने पिता को यौन उत्पीड़न की बात बताई। लेकिन जब मामला पुलिस तक पहुंचा, तो उन्होंने बयान बदलने की दलील देकर FIR दर्ज करने से इनकार कर दिया। सवाल यह है कि क्या अब न्याय इस बात पर मिलेगा कि बच्चा अपनी बात दोहरा पाए या नहीं? क्या चार साल की मासूम से कोर्ट जैसी गवाही की अपेक्षा की जा सकती है?
तीसरा मामला भोपाल के ही एक कॉलेज का है, जहां छात्राओं को पहले दोस्ती के जाल में फंसाया गया, फिर उनका वीडियो बनाकर ब्लैकमेल किया गया और बाद में गैंगरेप किया गया। पुलिस पूछताछ में एक आरोपी ने अपराध स्वीकार भी किया है, लेकिन अभी तक पीड़िताओं को न्याय नहीं मिला। जब अपराधी खुद गुनाह कुबूल कर रहा है, तो न्याय किस बात का इंतज़ार कर रहा है?
चौथा मामला छिंदवाड़ा का है, जहाँ 6 लोगों को POCSO एक्ट, मानव तस्करी और नाबालिग से बलात्कार के आरोपों में निचली अदालत ने सज़ा सुनाई थी। लेकिन हाईकोर्ट ने सबूतों की कमी बताते हुए सभी आरोपियों को बरी कर दिया। इसका मतलब यह है कि या तो पुलिस ने ठीक से जांच नहीं की या फिर पीड़िता की आवाज़ अदालत तक पहुंच ही नहीं पाई।
इन मामलों से एक बात साफ हो जाती है— सिर्फ फांसी की घोषणा से बेटियों की सुरक्षा नहीं हो सकती। ज़रूरत है निष्पक्ष, प्रभावी और संवेदनशील प्रशासनिक व्यवस्था की। आज मध्यप्रदेश को कानून नहीं, बल्कि कानून के न्यायपूर्ण क्रियान्वयन की ज़रूरत है। अगर बच्चियों को FIR लिखवाने के लिए भी संघर्ष करना पड़े, अगर राजनीतिक संबंध आरोपी को बचा लें, अगर पुलिस सबूत इकट्ठा करने में नाकाम रहे, तो कानून का डर किसके लिए है?
Buland Soch News यही पूछता है: क्या यह राज्य सिर्फ़ कानून बनाने में आगे है या फिर उसे लागू करने की भी इच्छाशक्ति रखता है? मुख्यमंत्री जी, जब बच्चियां सवाल करें, तो जवाब उन्हें न्याय से मिलना चाहिए— न कि सिर्फ़ भाषणों से। फांसी की बात तब मायने रखती है जब रास्ते में कानून, पुलिस और अदालत मिलकर बच्चियों की सच्चाई को सुनने को तैयार हों।
Buland Soch की मांग है कि POCSO और महिला अपराधों से जुड़े मामलों में त्वरित कार्रवाई हो, राजनीतिक हस्तक्षेप से मुकदमे सुरक्षित रहें, पुलिस जांच में जवाबदेही तय हो और पीड़ितों को वास्तविक संरक्षण मिले। क़ानून का डर सिर्फ किताबों में नहीं, अपराधियों के चेहरों पर दिखना चाहिए।