केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की रिपोर्ट ने खोली सरकारी दावों की पोल — अधूरी योजनाएं, प्रशिक्षित शिक्षकों की भारी कमी और गिरते नामांकन दरों ने शिक्षा व्यवस्था पर खड़ा किया बड़ा सवाल।
Buland Soch News | भोपाल
मध्यप्रदेश के सरकारी स्कूलों की स्थिति पर केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की ताज़ा रिपोर्ट ने न सिर्फ आँकड़ों से चौकाया है, बल्कि एक गंभीर चेतावनी भी दी है — कि यदि अब भी ठोस कदम नहीं उठाए गए तो “हर बच्चा स्कूल में” सिर्फ एक सपना बनकर रह जाएगा। रिपोर्ट के अनुसार, प्रदेश के 9500 स्कूल ऐसे हैं, जहां अब तक बिजली की व्यवस्था तक नहीं है। वहीं लगभग 12,000 स्कूल ऐसे हैं, जिनमें केवल एक ही शिक्षक पढ़ा रहे हैं — और वह भी पहली से पाँचवीं तक की सभी कक्षाओं को एक साथ।
इस स्थिति का सीधा प्रभाव नामांकन दर पर पड़ा है। शिक्षा मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है कि नामांकन में निरंतर गिरावट देखी जा रही है। एक ओर सरकार “पढ़ेगा इंडिया, बढ़ेगा इंडिया” के नारे लगा रही है, दूसरी ओर बच्चों को न तो बिजली, न किताब, न शौचालय और न शिक्षक मिल पा रहे हैं।
रिपोर्ट में साफ़ कहा गया है कि मध्यप्रदेश के 23,087 स्कूलों में से 21% स्कूल आज भी ऐसे हैं जहाँ दिव्यांग बच्चों के लिए कोई अनुकूल व्यवस्था नहीं है। इससे इन बच्चों की भागीदारी बेहद सीमित हो गई है। सिर्फ 0.1% नामांकन ही दिव्यांग बच्चों का है — जो ‘समावेशी शिक्षा’ के दावों को खोखला साबित करता है। वहीं शिक्षकों की ट्रेनिंग की बात करें तो सिर्फ 4.7% शिक्षक ही विशेष ज़रूरतों वाले बच्चों के साथ काम करने के लिए प्रशिक्षित हैं।
राज्य में 932 स्कूल ऐसे हैं जहाँ प्राथमिक और उच्च प्राथमिक दोनों वर्ग हैं, लेकिन वहाँ सिर्फ एक ही शिक्षक है। ऐसे में शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रश्न चिह्न लगना स्वाभाविक है। प्राइमरी स्कूलों में 26% और अपर प्राइमरी में 45.8% स्कूलों में एकल शिक्षक हैं। शिक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि यह आंकड़े बच्चों के मानसिक विकास के लिए गंभीर रूप से हानिकारक हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, स्कूल इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी कई योजनाएं अधूरी पड़ी हैं। लगभग 4000 से अधिक शौचालय निर्माण अधर में हैं, 1000 से अधिक स्कूलों में भवन निर्माण अधूरा है और खेल मैदान या टॉयलेट जैसी बुनियादी सुविधाएं अब भी कई जगह मौजूद नहीं हैं। इससे सरकारी स्कूलों की विश्वसनीयता और आकर्षण दोनों पर असर पड़ा है।
मप्र के कई ज़िलों में शिक्षा का यह संकट और भी गहरा है। ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां पहले ही संसाधनों की भारी कमी है, वहाँ एक शिक्षक को एक साथ 4–5 कक्षाओं को संभालना पड़ता है। वहीं स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति भी कम हो रही है, जिससे राज्य का ड्रोपआउट रेट राष्ट्रीय औसत से ऊपर जा चुका है।
इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद राज्य सरकार पर सवाल उठ रहे हैं — कि आखिर केंद्र द्वारा दिए गए फंड और योजनाओं का सही उपयोग क्यों नहीं हो रहा? ‘समग्र शिक्षा अभियान’ और ‘स्कूल शिक्षा गुणवत्ता कार्यक्रम’ जैसे नाम तो हैं, लेकिन जमीनी हकीकत इसके विपरीत है।
शिक्षाविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने मांग की है कि राज्य सरकार को तत्काल प्रभाव से शिक्षकों की नियुक्ति प्रक्रिया को गति देनी चाहिए। साथ ही जिन स्कूलों में बिजली, पानी और शौचालय जैसी सुविधाएं नहीं हैं, वहाँ इंफ्रास्ट्रक्चर विकास को प्राथमिकता देनी चाहिए।
सवाल अब ये है कि क्या सरकार सिर्फ नई योजनाओं की घोषणाएं करती रहेगी या इन गंभीर समस्याओं का वास्तविक समाधान खोजेगी? क्योंकि जब स्कूल में न शिक्षक होंगे, न सुविधाएं — तो शिक्षा सिर्फ योजना पत्रों तक ही सीमित रह जाएगी।