जोरावर सिंह तथा साहिबजादा फतेह सिंह।।। धर्मनिष्ठ बालकों की कथा…
Varsha_Shukla
गुरु गोबिंदसिंह जी के साहिबजादे जोरावर सिंह जी एवं साहिबजादा फतेह सिंह जी की सहीदी संसार में एक मात्र ऐसी सहीदी है जो धर्म की रक्षा के लिए दी गई होगी।
छोटी सी उम्र में ही उन्हें इतने बड़े संकट का सामना करना पड़ा । धर्म छोड़ने के लिए पहले लालच और कठोर यातनाएँ दी गयीं परन्तु ये दोनों वीर अपने धर्म पर अडिग रहे ।
फतेह सिंह [Fateh Singh] तथा जोरावर सिंह [Zorawar Singh] सिख धर्म के दसवें गुरू गोविंदसिंह जी के सुपुत्र थे । आनंदपुर के युद्ध में गुरू जी का परिवार बिखर गया था । उनके दो पुत्र अजीतसिंह एवं जुझारसिंह की तो उनसे भेंट हो गयी, परन्तु दो छोटे पुत्र गुरूगोविंद सिहं की माता गुजरीदेवी के साथ अन्यत्र बिछुड़ गये ।
आनंदपुर छोड़ने के बाद फतेह सिंह एवं जोरावर सिंह अपनी दादी के साथ जंगलों, पहाड़ों को पार करके एक नगर में पहुँचे । उस समय जोरावरसिंह की उम्र मात्र सात वर्ष ग्यारह माह एवं फतेहसिंह की उम्र पाँच वर्ष दस माह थी ।
माता गुजरीदेवी दोनों नन्हें बालकों को उनके दादा गुरू तेग बहादुर एवं पिता गुरुगोविंदसिंह की वीरतापूर्ण कथाएँ सुनाती रहती थी।
एक रात मोरिंडा के कोतवाल ने सिपाहियों को भेज कर दोनों बालकों सहित माता गुजरीदेवी को बंदी बना लिया। सुबह सैनिक बच्चों को लेने पहुँच गये। दोनों बालकों ने दादी के चरणस्पर्श किये एवं सफलता का आशीर्वाद लेकर चले गए । दोनों बालक नवाब वजीरखान के सामने पहुँचे तथा सिंह की तरह गरजते हुए बोले “वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरू जी की फतेह ।”
वज़ीर खान, गुरू साहिब के मासूम बच्चों को अपने कैदियों के रूप में देखा तो बहुत प्रसन्न हुआ और अगली सुबह बच्चों को कचहरी में पेश करने के लिए फरमान जारी कर दिया।
वज़ीर ख़ान के सिपाही दोनों साहिबजादों को कचहरी में ले गये।थानेदार ने बच्चों को समझाया कि वे नवाब के दरबार में झुककर सलाम करें। किन्तु बच्चों ने इसके विपरीत उत्तर दिया और कहा: “यह सिर हमने अपने पिता गुरू गोबिन्दसिंह के हवाले किया हुआ है, इसलिए इस को कहीं और झुकाने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता ।
शरीर पर केसरी वस्त्र एवं पगड़ी तथा कृपाण धारण किए इन नन्हें योद्धाओं को देखकर एक बार तो नवाब का भी हृदय भी पिघल गया ।उसने बच्चों से कहा : “इन्शाह अल्लाह! तुम बड़े सुन्दर दिखाई दे रहे हो । तुम्हें सजा देने की इच्छा नहीं होती । बच्चों ! हम तु्म्हें नवाबों के बच्चों की तरह रखना चाहते हैं । एक छोटी सी शर्त है कि तुम अपना धर्म छोड़कर मुसलमान बन जाओ ।”
लेकिन दोनों वीरो ने उत्तर दिया हमें सिक्खी जान से अधिक प्यारी है। दुनियाँ का कोई भी लालच व भय हमें सिक्खी से नहीं गिरा सकता। हम पिता गुरू गोबिन्द सिंह के शेर बच्चे हैं तथा शेरों की भांति किसी से नहीं डरते। हम इस्लाम धर्म कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे।
नवाब बच्चों को मारने की बजाय इस्लाम में शामिल करने के हक में था। वह चाहता था कि इतिहास के पन्नों पर लिखा जाये कि गुरू गाबिन्द सिंह के बच्चों ने सिक्ख धर्म से इस्लाम को अच्छा समझा और मुसलमान बन गए। अपनी इस इच्छा की पूर्ति हेतु उसने गुस्से पर नियँत्रण कर लिया तथा कहने लगा बच्चों जाओ, अपनी दादी के पास। कल आकर मेरी बातों का सोच समझकर उत्तर देना। माता गुजरी जी पोतों से कचहरी में हुए वार्तालाप के बारे में पूछने लगी। बच्चें भी दादी माँ को कचहरी में हुए वार्तालाप के बारे में बताने लगे।
अगले दिन भी कचहरी में पहले जैसे ही सब कुछ हुआ, नवाब का ख्याल था कि भोली-भाली सूरत वाले ये बच्चे लालच में आ जाएँगे। पर वे तो गुरू गोबिन्द सिंह के बच्चे थे, मामूली इन्सान के नहीं। उन्होंने किसी शर्त अथवा लालच में ना आकर इस्लाम स्वीकार करने से एकदम इन्कार कर दिया। अब नवाब धमकियों पर उतर आया। गुस्से से लाल पीला होकर कहने लगा: ‘यदि इस्लाम कबूल न किया तो मौत के घाट उतार दिए जाओगे। फाँसी चढ़ा दूँगा। जिन्दा दीवार में चिनवा दूँगा। बोलो, क्या मन्जूर है– मौत या इस्लाम ?
उन्होंने उत्तर दिया ‘हमारे खानदान की रीति है, ‘सिर जावे ताँ जावे, मेरा सिक्खी सिदक न जावे।’ हम उन गुरूतेगबहादुरजी के पोते हैं जो धर्म की रक्षा के लिए कुर्बान हो गये। हम उन गुरूगोविंदसिंह जी के पुत्र हैं जिनका नारा है : चिड़ियों से मैं बाज लड़ाऊँ, सवा लाख से एक लड़ाऊँ । जिनका एक-एक सिपाही तेरे सवा लाख गुलामों को धूल चटा देता है, जिनका नाम सुनते ही तेरी सल्तनत थर-थर काँपने लगती है । तू हमें मृत्यु का भय दिखाता है । हम फिर से कहते हैं कि हमारा धर्म हमें प्राणों से भी प्यारा है। हम प्राण त्याग सकते हैं परन्तु अपना धर्म नहीं त्याग सकते । हम धर्म परिवर्तन की बात ठुकराकर फाँसी के तख्ते को चूमेंगे।’
उनकी दृढ़ता को देखकर उन्हें किले की दीवार की नींव में चिनवाने की तैयारी आरम्भ कर दी गई किन्तु बच्चों को शहीद करने के लिए कोई जल्लाद तैयार न हुआ।दिल्ली के सरकारी जल्लाद शिशाल बेग और विशाल बेग को सुपुर्द कर दिया गया । बालकों को निश्चित स्थान पर ले जाकर उनके चारों ओर दीवार बननी प्रारम्भ हो गयी । धीरे-धीरे दीवार उनके कानों तक ऊँची उठ गयी । इतने में बड़े भाई जोरावरसिंह ने अंतिम बार अपने छोटे भाई फतेहसिंह की ओर देखा और उसकी आँखों से आँसू छलक उठे ।
जोरावर सिंह की इस अवस्था को देखकर वहाँ खड़ा काजी बड़ा प्रसन्न हुआ । उसने समझा कि ये बच्चे मृत्यु को सामने देखकर डर गये हैं । उसने अच्छा मौका देखकर जोरावरसिंह से कहा : “बच्चों ! अभी भी समय है । यदि तुम मुसलमान बन जाओ तो तुम्हारी सजा माफ कर दी जाएगी ।”
जोरावर सिंह ने गरजकर कहा : “मूर्ख काजी ! मैं मौत से नहीं डर रहा हूँ । मेरा भाई मेरे बाद इस संसार में आया परन्तु मुझसे पहले धर्म के लिए शहीद हो रहा है । मुझे बड़ा भाई होने पर भी यह सौभाग्य नहीं मिला, इसलिए मुझे रोना आता है ।”
सात वर्ष के इस नन्हें से बालक के मुख से ऐसी बात सुनकर सभी दंग रह गये । थोड़ी देर में दीवार पूरी हुई और वे दोनों नन्हें धर्मवीर उसमें समा गये ।
कुछ समय पश्चात दीवार को गिरा दिया गया। दोनों बालक बेहोश पड़े थे, परन्तु अत्याचारियों ने उसी स्थिति में उनकी हत्या कर दी ।। इस प्रकार श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के सुपुत्रों ने अल्प आयु मे ही शहादत प्राप्त की। यह घटना 13 पौष तदानुसार 26 दिसम्बर 1705 ईस्वी में घटित हुई।