“कानून किताबों में जितने सुंदर दिखते हैं, जमीनी हकीकत में उतने ही बेबस…”
ये पंक्तियाँ उस छात्रा के सवाल के बाद ज़ेहन में गूंजती हैं, जिसने भोपाल में आयोजित मॉक पार्लियामेंट में सीएम से पूछ लिया —
“महिलाओं पर यौन हिंसा जैसे गंभीर विषयों पर चर्चा क्यों नहीं होती?”
मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव का जवाब था —
“मध्यप्रदेश पहला राज्य है जहाँ बालिकाओं के साथ यौन अपराध पर फांसी की सज़ा है।”
लेकिन क्या सिर्फ फांसी का कानून बना देना, न्याय की गारंटी हो सकता है?
कानून है, लेकिन क्या उसका असर है?
2017 में मध्यप्रदेश ने फांसी की सज़ा वाला कानून सबसे पहले लागू किया — लेकिन हालात बदले नहीं।
2024 के सरकारी आंकड़े बताते हैं कि प्रतिदिन औसतन 20 बलात्कार के केस दर्ज होते हैं।
2022 में ये आंकड़ा 6,134 था, जो 2024 में 7,294 हो गया — यानी 19% की बढ़त।
जमीनी सच्चाई: चार बड़े मामले, एक ही कहानी
1. ABVP नेता पर रेप का आरोप
पूर्व संगठन मंत्री भगवन सिंह मेवाड़ा पर आदिवासी नाबालिग से रेप का केस दर्ज हुआ।
FIR, POCSO और SC/ST एक्ट की धाराएँ लगीं — लेकिन अभी तक गिरफ्तारी नहीं।
क्या नेता के पद और पहचान कानून से ऊपर हैं?
2. बच्ची का बयान ‘बदल गया’
भोपाल की 4 साल की बच्ची ने अपने पिता को आपबीती सुनाई, पर पुलिस ने FIR दर्ज करने से इनकार कर दिया —
“बयान बदल गया” कह कर।
क्या अब बच्चियों को कोर्ट-जैसा बयान देना होगा, तभी उन्हें न्याय मिलेगा?
3. ब्लैकमेल और गैंगरेप की फिल्म जैसी सच्चाई
कॉलेज छात्राओं को फंसाकर वीडियो बनाए गए, फिर गैंगरेप हुआ।
एक आरोपी ने पुलिस के सामने कबूलनामा दिया, लेकिन अब तक कोई ठोस सज़ा नहीं।
जब जुर्म कबूल हो जाए — फिर इंतज़ार किसका?
4. मानव तस्करी में सज़ा, फिर बरी
छिंदवाड़ा में नाबालिग से बलात्कार और तस्करी में सत्र अदालत ने 6 लोगों को सज़ा दी।
पर हाईकोर्ट ने “सबूतों की कमी” कहकर सबको बरी कर दिया।
क्या न्याय अब केवल CCTV और रिकॉर्डिंग तक सीमित है?
विशेषज्ञों की राय
कई कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि कठोर सज़ा जैसे फांसी कभी-कभी साक्ष्य को दबा देती है, क्योंकि अपराधी पीड़िता को ही खत्म करने की कोशिश करते हैं।
इसके साथ ही, पुलिस की भूमिका, राजनीतिक दबाव, और न्याय प्रक्रिया की धीमी गति कानून की धार को कुंद कर रही है।
यह सिर्फ सवाल नहीं, व्यवस्था की पोल है
• क्या बच्चियों की सुरक्षा सिर्फ भाषणों में रह गई है?
• क्या आरोपी की पहचान के हिसाब से कानून लागू होता है?
• क्या पुलिस अब भी पीड़िता की जगह “बयान” देख रही है?
निष्कर्ष
फांसी का कानून एक मजबूत इरादा हो सकता है, लेकिन अकेले पर्याप्त नहीं।
ज़रूरत है —
• ईमानदार पुलिसिंग,
• राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त जांच,
• त्वरित न्याय व्यवस्था,
• और समाज में भरोसे का माहौल।
वरना बेटियाँ सवाल करती रहेंगी, और मंचों से “कानून है” जैसे जवाब आते रहेंगे।