पढ़ेगा इंडिया… या चुनावी दांव देखेगा इंडिया?
कोरोना काल में सरकारी शिक्षा व्यवस्था ने जो संक्रमण की मार झेली है उसे चुनावी दांवों की वैक्सीन भी दुरुस्त नहीं कर पाएगी
ना पढ़ेगा इंडिया, ना आगे बढ़ेगा इंडिया। इन अनपढ़ नेताओं से सीख कर सिर्फ चुनावी दांव देखेगा इंडिया?
सुष्मिता राज।
जहां एक तरफ पूरा देश कोरोना जैसे महामारी से त्रस्त है, वहीं शिक्षा प्रणाली बुरी तरह संक्रमित हुई है। कोरोना काल में सरकारी शिक्षा व्यवस्था ने जो संक्रमण की मार झेली है उसे चुनावी दांवों की वैक्सीन भी दुरुस्त नहीं कर पाएगी। प्राइवेट संस्थानों में ऑनलाइन क्लास के जरिए बच्चों तक शिक्षा पहुंचाने की कोशिश की जा रही है। लेकिन ऑनलाइन क्लास के माध्यम से विद्यार्थी प्रयोगात्मक शिक्षा से दूर रहे हैं। उनका वास्तविक निरीक्षण करना भी संभव नहीं हो पा रहा है। अगर हम सरकारी स्कूलों की बात करें तो वहां विद्यार्थी अपेक्षाकृत कम सुविधा संपन्न हैं क्योंकि वो जरूरतमंद परिवारों से आते हैं।
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उनके लिए ऑनलाइन क्लास के लिए मोबाइल और इंटरनेट जैसी बुनियादी सुविधाएं जुटाना ही मुश्किल है। वहीं, कंप्यूटर और लैपटॉप जैसी सुविधाओं से वो मीलों दूर हैं। इसका दुष्परिणाम यह देखने को मिल रहा है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे विद्यार्थी इस कोरोना महामारी के दौरान शिक्षा से वंचित नजर आ रहे है। दूसरी तरफ, सरकार भी इन विद्यार्थियों के हितों में कोई भी सफल कदम नहीं उठाया जा रहा है। चुनावी सभाओं और घोषणा-पत्रों में जो दावें किए जाते हैं वो धरातल पर कम ही सफल होते दिखते हैं।
भारत में शिक्षा उनके नागरिकों के मौलिक अधिकारों में शामिल है।
आजादी के 73वें वर्ष के बाद आज हम जहां पहुंचे हैं उसके पीछे शिक्षा का बड़ा योगदान है ना कि राजनीति का। भारत की संस्कृति में शिक्षा का महत्व प्राचीन समय से ही रहा है,लेकिन वर्तमान समय मे भारत मे शिक्षा व्यवस्था दम तोड़ रही है,गरीब व्यक्ति सरकारी सिस्टम से लड़ रहा है तो मध्यम वर्ग शिक्षा के व्यापारीकरण से जूझ रहा है।शिक्षा केवल चुनाव में नेताओं के भाषण तक ही सीमित हो चुकी है।देश के प्रत्येक राज्य सरकारों का शिक्षा के लिए हजारों करोड़ का बजट केवल कागजी भ्रष्टाचार तक सीमित है।कोरोना महामारी ने देश की शिक्षा व्यवस्था की पोल खोल कर रख दिया है।
ऐसा युवा देश जहां की 60 फीसदी आबादी युवा है वहां शिक्षा का बुनियादी महत्व बहुत बढ़ जाता है। इस महामारी के दौर में देश बुनियादी और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में काफी पिछड़ जाएगा। ऐसी स्थिति में देश को सिर्फ निजी शिक्षा व्यवस्था के भरोसे ही रहना पड़ रहा है। लेकिन जहां निजीकरण होता है वहां उसके व्यवसायिकरण के दुष्परिणाम भी देखने को मिलते हैं।
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सरकारी स्कूलों के मुकाबले प्राइवेट स्कूल
बात करें शिक्षा प्रणाली को प्राईवेट करने की तो इसमें विद्यार्थियों के लिए बुनियादी सुविधाएं और नई तकनीक, अच्छी दाखिला प्रक्रिया, शिक्षा का उच्च स्तर और उच्च स्तरीय शिक्षक मिलते हैं। जैसे सरकारी स्कूलों के मुकाबले निजी स्कूलों में हर विषय के लिए अलग-अलग शिक्षक होते हैं। ऐसे विद्यालयों में शिक्षक अपने विषय में निपुण होते हैं। इससे विद्यार्थियों को शिक्षा में वास्तविक ज्ञान भी भरपूर प्राप्त होता है। वहीं, सरकारी शिक्षकों के ऊपर अधिक विद्यार्थियों का बोझ, मूलभूत सुविधाओं का अभाव और सरकारी कार्यों में उनकी जबरन ड्यूटी बड़ी समस्याओं में से एक है। इसका खामियाजा आखिरकार विद्यार्थियों को भुगतना पड़ता है।
जब अभिभावक अपने बच्चों की शिक्षा के लिए निजी स्कूलों पर निर्भर हो जाते हैं तब मनमानी फीस वसूली, प्रवेश में भ्रष्टाचार और शिक्षा का व्यवसायिकरण बड़ी समस्या बनकर उसके सामने आती है।भारत में हाल में बनाई गई नई शिक्षा नीति को अगर चुनावी दांव के रूप में नहीं देखा गया। और इस नीति का सरकारी शिक्षा तंत्र में इमानदारी से लागू की गई तो शिक्षा के निजीकरण के दुष्परिणामों से बचा जा सकता है। वहीं, भविष्य में कोरोना जैसी या आपातकाल जैसी स्थिति में शिक्षा व्यवस्था की कमर नहीं टूटेगी। वहीं, सरकार को चाहिए कि वो सरकारी शिक्षा व्यवस्था में मोबाइल, इंटरनेट और कंप्यूटर जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिए बड़े फंड जारी करें। जिससे भारत जैसे विशाल और भौगोलिक संरचना में विषम क्षेत्रों में भी शिक्षा की ज्योत का उजियाला फैल सके। और हम गर्व से कह सके कि पढ़ेगा इंडिया… तभी बढ़ेगा इंडिया।